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मेरे बाद का मेरा शहर...
जो मेरी रग -रग में बसा था
सालों बाद मेरी नज़र से...
जिसमें समावेश है उनसब की बातों की छाप
जो कुछ सकारात्मक, कुछ नकारात्मक..
दोनों की जिस बात में समानता रही..
वो बना मेरे नजरिये का हिस्सा..
और यही है वापस मिला मुझे...
जाति, धर्म और राष्ट्रवाद के ढोंग
पर बहस करते लोग ...
हाथ मिलाते सामने वाले की
औकात नापते लोग..
कुछ वैसे ही दम्भ तो कुछ
कुंठित मानसिकता वाले लोग...
जिनके कदमों तले दबे, कराहते
अपने शहर को देखा ....
जी जान से बचाने की कोशिश
जिसे कुछ लोग कर रहे ..
उन्हीं के कारण शायद धड़क रहा
मेरा दिल अब भी उसके लिए......
रंगहीन दीवारों और खण्डहरों के बीच
तलाश रहा मन अब भी उस बच्चे सा ..
जो अपनी जन्मभूमि में जाकर
चाहता है बंद करना अपनी आँखें..
पहाड़ों से गुजर सरसराती पत्तियों के गीत
जिसने हमेशा लोरी गाकर सुलाया तो
कभी मस्त आसमान को देखकर
गा उठता था मन तब..
तितली उड़ी उड़के चली, फूल ने कहा आ जा मेरे पास...
खो गया वो सब और रह गयी यादें
जो अब काँच के टुकड़ों सरीखे कुरेद रहीं हैं..
और कराहते मन से रिस रहा
लहू .का .कतरा- कतरा
मेरी यादों को कुछ यूं भिंगोते हुए...


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